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चन्द्रसिंह बिरकाली का सम्पूर्ण जीवन परिचय – 1

कवि चंद्रसिंह बिरकाली
राजस्थान की बालू रेत के टिब्बों से घिरी मरुभूमि की आग उगलती गर्मी, तीर सी लगने वाली सर्दी और रिमझिम करती सुहावनी वर्षा की अनूठी प्रकृति नें अपने आंचल में अनेक सपूतों को जन्म दिया है।
अपने जीवन को अलग अलग क्षेत्रों में समाज और राष्ट्र को समर्पित कर वे महान सपूत कालजयी हो गए। ऐसे ही कालजयी सपूतों में चंद्रसिंह बिरकाली का नाम है, जिन्होंने मायड भाषा राजस्थानी के साहित्य को समृद्ध कर, राजस्थान की अनूठी प्रकृति को देश के कोने कोने में पहुचाकर अमर कर दिया।
गांवो में, चोपालों, खेतों, पनघटों पर बोली जाने वाली भाषा में रचनाओ को जन्म देकर राजस्थानी साहित्य को समृद्ध करने वाले कालजयी कवि चंद्रसिंह बिरकाली का जन्म राजस्थान के जिले हनुमानगढ़ की नोहर तहसील के “बिरकाली” गाँव में हुआ था। ठाकुर खुमान सिंह के घर में विक्रमी संवत 1969 श्रावन सुदी पूर्णिमा (27 अगस्त, 1912) को महान सपूत ने किलकारी मारी थी। चंद्रसिंह का रचना संसार 7 वर्ष की अल्प आयु में ही शुरू हो गया था तथा राजस्थान की प्रकृति पर उनका लिखा गया एक एक शब्द अमर हो गया। ‘बादळी’ और ‘लू’ उनकी दो महान काव्य रचनायें हैं जिन्होंने सारे देश का ध्यान राजस्थान की ओर आकर्षित किया।

चंद्रसिंह बिरकाली से घर बसाने के बारे में एक बार पूछा गया था तो उन्होंने उतर दिया कि दो कमरे बादळी और लू आकाश में बनाये हैं। उनमें वास करूँगा। इन काव्य कृत्यों की महानता इससे बड़ी और कोई नहीं हो सकती कि ये दो रचनायें लोगों के हृदय में समाई हुई है।
राजस्थान के बाहर रहने वाले लोगों को ‘लू’ रचना सबसे अधिक प्रिय लगी। चंद्रसिंह स्वंय को भी ‘लू’ अधिक प्रिय लगती थी जिसका कारण वे बतलाया करते थे कि मरुभूमि में वर्षा तो यदा कदा ही होती है, मगर ‘लू’ तो सदा
सदा ही मिलती रहती है।
जब लू चलती है तो सब कुछ झुलसा देती है। बसन्त भी लुट जाता है जिसका सागोपांग वर्णन चन्द्रसिंह बिरकाली ने किया है।
“फूटी सावन माय,
वाडी भरी बसन्त री लूटी लुआं आय।”

चन्द्र सिंह बिरकाली की ख्याति एक कवि के रूप में ‘बादळी’ के प्रकाशन के साथ ही फैलने लगी थी। ‘बादळी’ सन 1941 में लिखी गयी और उसका पहला संस्करण बीकानेर में प्रकाशित हुआ था। बीकानेर रियासत के महाराजा सादुलसिंह उस समय युवराज थे, जिन्हें पहला संस्करण समर्पित किया गया था। सन 1943 में लोगों ने पढ़ा और ऐसा सराहा की चारो ओर ‘बादळी’ की चर्चा होने लगी थी। ‘बादळी’ को मरुधरा के वासी कैसे निहारते है, कितनी प्रतीक्षा करते हैं और वर्षा की बूंदों की कितनी चाह होती है। यह बिरकाली जी नें जनभाषा में बड़े ही रोचक ढंग से लिखा। ‘बादळी’ के प्रकाशन के तुरंत बाद ही बिरकाली जी को काशी की नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा रत्नाकर पुरस्कार प्रदान कर सम्मानित किया गया। इसी पर राष्ट्रीय स्तर का बलदेवदास पदक भी बिरकाली जी को प्रदान कर सम्मानित किया गया। आधुनिक राजस्थानी रचनाओं में कदाचित ‘बादळी’ ही एक ऐसी काव्यकृति है जिसके अब तक नो संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। महान साहित्यकारों सुमित्रा नंदन पन्त , महादेवी वर्मा और सूर्यकांत त्रिपाठी “निराला” नें ‘बादळी’ पर अपनी सम्मतिया दी और उसे एक अनमोल रचना बतलाया। यह अनमोल रचना कई वर्षों से माध्यमिक कक्षाओं के पाठ्यक्रम में पढाई जा रही है। साहित्यकारों रविन्द्रनाथ ठाकुर , मदनमोहन मालवीय आदि नें भी बिरकाली जी को श्रेष्ठ रचनाकार के रूप में स्वीकार किया था।
‘बादळी’ और ‘लू’ रचनाओं ने अनेक नए कवियों को प्रेरित और प्रोत्साहित किया। चन्द्रसिंह बिरकाली की कुछ कविताओं का अंग्रेजी में भी अनुवाद हुआ। केंद्रीय साहित्य अकादमी के लिए प्रो . इंद्रकुमार शर्मा ने ‘बादळी’ और ‘लू’ का अंग्रेजी में अनुवाद किया था। बीसवीं शताब्दी का छठा दशक कविवर बिरकाली जी की सम्पन्नता और तेजस्विता का रहा। बिरकाली जी नें गाँव को छोड़कर प्रदेश की राजधानी को कार्य क्षेत्र बनाने हेतु जयपुर की खासा कोठी में अपना डेरा जमाया जहाँ कमरा नं॰ 9 में वे रहने लगे। कुछ महीनों तक वहां रहने के बाद वे सी स्कीम में रहने लगे थे। चन्द्रसिंह जी के आसपास जयपुर में एक प्रभामंडल सृजित हो गया था, जिसमें राजनीतिज्ञ प्रशासनिक व पुलिस अधिकारी, और साहित्यकार शामिल थे। तत्कालीन गृह एवम् स्वास्थ्य चिकित्सा मंत्री कुम्भाराम आर्य कविवर चन्द्रसिंह बिरकाली के अनन्य मित्रो में से एक थे। उस समय जनसम्पर्क निदेशक ठाकुर श्याम करणसिंह, उप पुलिस महानिरीक्षक जसवंतसिंह, पुलिस अधीक्षक जगन्नाथन भी बिरकाली जी के मित्रों में से एक थे।
रावत सारस्वत के सहयोग से उन्होंने राजस्थानी भाषा प्रचार सभा का गठन किया और राजस्थानी में ‘मरुवाणी’ नामक मासिक का प्रकाशन शुरू किया। ‘मरुवाणी’ का प्रकाशन शुरू करना आधुनिक राजस्थानी के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना रही। लगभग दो दशक तक प्रकाशित होती रहने वाली इस पत्रिका के माध्यम से राजस्थानी भाषा का श्रेष्ठतम सृजन महत्वपूर्ण और प्रभावशाली रूप में सामने आया। राजस्थानी के चुने हुए रचनाकार ‘मरुवाणी’ से जुड़े हुए थे। संस्कृत के प्रसिद्ध काव्यों के राजस्थानी में अनुवाद हुए जो चन्द्रसिंह जी और ‘मरुवाणी’ के माध्यम से ही संभव हो सके थे।